पिछले कुछ समय से देश भर में सिविल सेवा परीक्षा
के अभ्यर्थी सी-सैट परीक्षा प्रणाली को हटाये जाने की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं.
इन आंदोलनकारियों की इस परीक्षा प्रणाली से संबंधित तमाम आपत्तियों में प्रश्नों के
अनुवाद में त्रुटियां, क्लिष्ट भाषा का प्रयोग, भारतीय भाषाओं की उपेक्षा जैसे गंभीर मुद्दे शामिल हैं. इस
समय संसद से सड़क तक भाषा और अनुवाद का मसला राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों का केन्द्र
बना हुआ है. स्वतंत्र हिंदी अनुवादक श्री सुयश सुप्रभ के इस लेख में उन्होंने अनुवाद
और विशेषकर सरकारी क्षेत्र के अनुवाद की शैली और संस्कृति को लेकर कुछ गंभीर प्रश्न
उठाए हैं जिस पर अनुवादक समुदाय को अवश्य मंथन करना चाहिए.
- मोडरेटर
सुयश सुप्रभ |
सिविल सेवा परीक्षा में
2011 से लागू हुए सीसैट के विरोध में जो आंदोलन मुखर्जी नगर में शुरू
हुआ उसकी गूँज अब भारत के कई राज्यों में सुनाई दे रही है। भारत में लंबे समय के
बाद भाषा के मुद्दे पर इतना बड़ा आंदोलन उठ खड़ा हुआ है। सीसैट में अंग्रेज़ी और
घटिया हिंदी अनुवाद के सहारे एक बड़े तबके को शासन व्यवस्था से बाहर रखने की
साज़िश रची गई है। यह वही तबका है जो अपनी भाषाओं की मदद से देश की समस्याओं को
केवल अंग्रेज़ी के जानकारों की तुलना में बेहतर ढंग से समझ सकता है। यह भी ध्यान
देने वाली बात है कि अंग्रेज़ी के जानकारों को अनुचित फ़ायदा पहुँचाकर लोक और
तंत्र के बीच की दूरी बढ़ाने वाले सीसैट को बहुत हड़बड़ी में लाया गया।
सबसे पहले सीसैट से
जुड़े आंदोलन में भाषा के राजनीतिक संदर्भों पर नज़र डालते हैं। अंग्रेज़ी के
समर्थकों ने इसे हिंदी बनाम अंग्रेज़ी संघर्ष का रूप देने की कोशिश की है। इस काम
में उन्हें मीडिया के अंग्रेज़ीदाँ तबके का भी सहयोग मिला है। ऐसा इस तथ्य के
बावजूद हो रहा है कि आंदोलनकारियों ने अपने ज्ञापन में तमिल, कन्नड़ जैसी भारतीय
भाषाओं में घटती सफलता दर के आँकड़े भी पेश किए हैं। 2011
में
तमिल माध्यम के केवल 14 उम्मीदवार सिविल सेवा परीक्षा में कामयाब हुए थे। कन्नड़ में तो यह
आँकड़ा और खराब था। उस साल इस भाषा के केवल पाँच लोग सफल हो पाए थे। आंदोलनकारियों
ने अपने ज्ञापन में इन तमाम तथ्यों को शामिल किया है। इस तथ्य पर ध्यान देना
ज़रूरी है कि 2013 में जहाँ कुल 1,122 उम्मीदवारों में से
हिंदी माध्यम के 26 उम्मीदवारों को सफलता मिली वहीं तमाम अन्य भारतीय भाषाओं में कुल
मिलाकर केवल 27 उम्मीदवार चुने गए। यहाँ क्षेत्रीय विविधता की कमी साफ़ तौर पर
दिखती है। असल में यह आंदोलन लोकतंत्र के मूल्यों को बचाए रखने के बड़े मकसद की
तरफ़ बढ़ सकता है। ऐसा तभी होगा जब भाषा के मसले को जनतांत्रिक मूल्यों के बड़े
संदर्भ में देखा जाएगा। सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, भारतीय भाषाओं के मामले
में दोनों का एक जैसा ढुलमुल रवैया रहता है। हमारे देश में एक मूर्ति पर 200
करोड़
रुपये जितनी बड़ी राशि खर्च की जा सकती है, लेकिन भारतीय भाषाओं की
प्रगति के लिए शिक्षण, पुस्तकालय
आदि पर होने वाले खर्च में कटौती करने की बात कही जाती है।
आंदोलनकारियों ने सीसैट में घटिया अनुवाद को ग़ैर-अंग्रेज़ी माध्यम के उम्मीदवारों की सफलता की राह में रोड़ा बताया है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि यूपीएससी की निगवेकर समिति ने भी इस परीक्षा में अनुवाद को बेहतर बनाने का सुझाव दिया है। अनुवाद की ग़लतियों को देखकर बहुत-से लोगों ने इस बात की जाँच करने की माँग की है कि कहीं ये ग़लतियाँ जान-बूझकर तो नहीं की जाती हैं। अंग्रेज़ी में लिखे प्रश्न में ‘land reforms’ को हिंदी में ‘सुधार’ लिखना एक ऐसी ग़लती है जिससे उम्मीदवारों की सालों की मेहनत बर्बाद हो सकती है। मुख्य परीक्षा में भी अनुवाद इतना जटिल होता है कि अंग्रेज़ी में मूल पाठ पढ़े बिना उसका अर्थ समझना असंभव हो जाता है। 2012 में लोक प्रशासन के पहले प्रश्नपत्र में अनुवाद का एक उदाहरण देखिए - "राज्य उद्देश्य (स्टाट्सराइसन) के इस अमूर्त विचार के संतघोषण में अधिकारीतंत्र की अपनी स्वयं की शक्ति के परिरक्षण की दशाओं की निश्चित मूल-प्रवृत्तियाँ अभिन्न रूप से ग्रथित रहती हैं।" जहाँ एक-एक पल का महत्व हो, वहाँ इन लापरवाहियों से किस तबके को फ़ायदा होगा यह आप आसानी से समझ सकते हैं। इस मसले पर आवाज़ उठाते हुए आंदोलनकारियों को उस मानसिकता का भी विरोध करना होगा जिसमें केवल अंग्रेज़ी को भाषा और तमाम भारतीय भाषाओं को बोली का दर्ज़ा दिया जाता है।
हिंदी करोड़ों लोगों की
भाषा होने के बावजूद न्याय व्यवस्था, प्रशासन आदि में अनुवाद
की भाषा बनकर रह गई है। सरकारी हिंदी का अर्थ ही है अनूदित हिंदी। यह हिंदी जनता
से बहुत दूर खड़ी नज़र आती है। इसके शब्द जनता के मुँह या कलम से निकले शब्द न
होकर उन शब्दकोशों से निकले शब्द हैं जो अब अप्रासंगिक हो चुके हैं। जब देश में
जनता के अधिकारों को छीनने की परंपरा विकसित हो जाती है तब उसे ऐसी भाषा की ज़रूरत
पड़ती है जो बहुत बड़े तबके की समझ से बाहर हो। भारत में यह भूमिका अंग्रेज़ी और
सरकारी हिंदी निभाती है। ‘सामान्य’ को ‘प्रसामान्य’ लिखकर इसे हिंदी
उम्मीदवार के लिए अनावश्यक रूप से ‘असामान्य’ बना दिया जाता है। सरकारी
विभागों में इस हिंदी को प्रचलित करने में उन अधिकारियों की बहुत बड़ी भूमिका है
जो हिंदी को संस्कृत बनाने की ज़िद पाल बैठे हैं। उन्हें हिंदी में संस्कृत को
छोड़कर अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से भी चिढ़ होती है। असल में वे
कभी अंग्रेज़ी तो कभी संस्कृत के कठिन शब्दों से भरी हिंदी के बहाने विशिष्ट होने
की उच्चवर्गीय मानसिकता से ग्रस्त हैं। इस हिंदी में ऐसे बेजान शब्दों का प्रयोग
किया जाता है जो संग्रहालय में भूसे से भरे शेर-बाघ की तरह पाठकों को केवल डराने
का काम करते हैं। अनुवाद की भी अपनी अलग राजनीति होती है। जो भाषा आर्थिक दृष्टि
से संपन्न होती है, उसके
व्याकरण, वाक्य
संरचना, शब्दावली
आदि का दबाव उस भाषा पर देखने को मिलता है जो सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर
होती है।
सिविल सेवा परीक्षा में
अंग्रेज़ी के वर्चस्व और अनुवाद से जुड़ी समस्याओं को लेकर शुरू किया गया आंदोलन
भारतीय भाषाओं को रोज़गार से जोड़ने के बड़े मकसद तक जा सकता है। ऐसा तभी होगा जब
भारतीय भाषाओं में अच्छे शब्दकोश, विश्वकोश आदि उपलब्ध
होंगे। इतिहास, समाजशास्त्र
आदि विषयों में अच्छी किताबों की उपलब्धता भी ऐसे आंदोलन के लक्ष्यों में शामिल
होनी चाहिए। शासक वर्ग ने बड़ी चालाकी से बुद्धिजीवियों में भी यह धारणा फैला दी
है कि इन विषयों को भारतीय अंग्रेज़ी में ही पढ़ना चाहते हैं, जबकि सच तो यही है कि
ऐसे लाखों उम्मीदवार हैं जो अच्छी किताबें नहीं उपलब्ध होने के कारण मजबूरी में
अंग्रेज़ी माध्यम से परीक्षा देते हैं। सरकार से यह कहने का समय आ गया है कि
करोड़ों रुपये खर्च करके मूर्ति बनवाना किताबें छपवाने से अधिक महत्वपूर्ण काम
नहीं है। जब तक भाषा से जुड़े आंदोलनों में इन मुद्दों पर बात करके लंबे समय तक
चलने वाले कार्यक्रम नहीं बनाए जाएँगे, तब तक सरकार के लिए
किसी परीक्षा के संदर्भ में उठाए गए सवालों की अनदेखी करना आसान बना रहेगा।
(यह आलेख आग़ाज़ पत्रिका के प्रवेशांक (अगस्त अंक) में प्रकाशित हुआ है )
बहुत बढ़िया जागरूक प्रस्तुति
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