यह
बात समझना जरूरी है कि अनुवादकों का यह समूह एक टीम जरूर है पर यह गुट नहीं है। यह
टीम ‘कारवां’ बढ़ते जाने के क्रम में स्वाभाविक रूप से ‘दूध से मक्खन’ निकलते जाने सरीखी प्रक्रिया से
निकला है।
ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों स्तरों पर कुछ चर्चाएं मची हैं जिसमें कुछ confusion
और कुछ negativity
की बू है। पीछे जो
अच्छा काम होता चला वह यह कि कुछ सक्रिय अनुवादकों द्वारा सभी अनुवादकों तक
पहुंचने और परिवर्तन की दिशा में काम शुरू करने का आह्वान करने का घनघोर अभियान
चला, इन
सक्रिय अनुवादकों द्वारा एक दबाव समूह के रूप में पुराने एसोसिएशन को आम सभा की
बैठक बुलाने के लिए मजबूर किया गया, अनुवादकों की आम बैठक हुई और सक्रिय अनुवादकों
द्वारा उस बैठक में अधिकतम भागीदारी सुनिश्चित की गई। चुनाव की घोषणा, सक्रिय अनुवादकों के समूह द्वारा कार्य करने के
लिए इ्च्छुक अन्य अनुवादकों की तलाश की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाना, बिखरे हुए और लगभग
सोये हुए और बेहतरी की आशा छोड़ चुके लगभग निराश अनुवादकों के संवर्ग में परस्पर
संचार और संवाद के चैनल गढ़ना, चुनाव की प्रक्रियाओं और प्रस्तावित एसोसिएशन
के आगे चलकर पंजीकरण की शर्तों को पूरा करने हेतु प्रक्रियाओं को पूरा करना यह सब काम होता चला। लेकिन,
यह अफसोसजनक है कि इन कामों के समानांतर कुछ अनुवादकों में confusion भी बनता रहा
और कुछ लोगों द्वारा उस confusion का लाभ उठाकर negativity भी बोई जाती रही।
यूं तो मैं संयुक्त सचिव पद के लिए आधिकारिक उम्मीदवार
हूं पर कुछ बातें मैं एक स्वतंत्र पर्यवेक्षक, एक गवाह के रूप में कहने का प्रयास
कर रहा हूं। यह बात मैं शुरू से देखता रहा कि सक्रिय अनुवादकों के पूरे कार्य व्यापार
में उनकी मंशाओं में प्राकृतिक न्याय के तकाजों, लोकतांत्रिक मूल्यों के
तकाजों, नेतृत्व के सहज गुणों, जांबाजी और कठिन श्रम का ठीक ठीक वहन होता रहा है।
ये लोग अच्छी मंशा के cementing
force से जुड़े हैं।
यह बात समझना जरूरी है कि अनुवादकों का यह समूह एक
टीम जरूर है पर यह गुट नहीं है। यह टीम ‘कारवां’ बढ़ते जाने के क्रम में स्वाभाविक रूप से ‘दूध
से मक्खन’ निकलते जाने सरीखी प्रक्रिया से निकला है। इस पूरे
अभियान का ताना बाना अजय कुमार झा और दिनेश कुमार जैसे उन लोगों के इर्द गिर्द
बुनता चला जिन्होंने अपनी नैतिक आभा बहुत लंबी कालावधि में अर्जित कर रखी थी। इन्हें
बड़ी संख्या में विभिन्न कार्यालयों में काम करने वाले अनुवादक पहचानते थे कि
इन्होंने कैडर के मुद्दों को आर्टिकुलेट करके उन पर across the cadre समर्थन जुटाने के लिए हमेशा काम किया था। इसलिए जब इन्होंने
अभियान की कल्पना की और थोड़ा थोड़ा काम शुरू किया तो इनके भी अनुमान के इतर ‘कारवां’
बहुत तेजी से बना। बदलाव की इच्छा दिलों में दबाए अनुवादकों की कामनाएं फूट पड़ी।
फिर, एक व्यक्ति जो कैडर के लिए एक ‘चमत्कार’
से कम नहीं उसका नाम है ‘सौरभ आर्य’ । सौरभ ने अधुनातन तकनीकों का प्रयोग कर कर और दोस्ताना
चुंबकीय स्वभाव की छटा बिखेर बिखेर across
the cadre परस्पर संवाद का एक चलन शुरू कर
रखा था। अजय कुमार झा और दिनेश कुमार की सुनिर्मित नैतिक आभा और सौरभ और उसके
मित्रों की मेहनती जुगलबंदी एक सुखद संयोग के रूप में परस्पर मिल गए। निश्चित ही
इस टीम में जो ‘सुखद संयोग’ है वह स्वागत योग्य है,
और उसे ‘गुट’ का नाम देना संकीर्ण और न्यस्त स्वार्थों के हाथ
में खेलना है। जिन लोगों के इर्द गिर्द अभियान एकत्र हुआ उन पर और उनके निर्णयों
पर विश्वास अभी इस समय प्राकृतिक न्याय का एक तकाजा ही है। और जब मैं अभियान की
बात करता हूं तो उसका अर्थ सिर्फ फेसबुक पर टिप्पणियां करना नहीं है बल्कि संवाद
के माध्यम के रूप में नेट की संभावना का पूरा दोहन करने का नियमित पैटर्न बनाने
के साथ साथ जमीनी स्तर पर सुविचारित नियमित सक्रियता दिखाना भी है।
एक और बात जो मुझे महत्वपूर्ण लगती है वह यह कि यह
लोग जो एक टीम हैं वह टीम इसलिए हैं कि इन्होंने अभियान के क्रम में एक दूसरे को
पहचाना है और एक-दूसरे की जिम्मेवारी लेने की कमोबेश स्थिति में हैं। अन्य लोग
जो अभियान का हिस्सा नहीं थे और बाद में छोटे छोटे समूह बनाकर दबाव बनाकर अपने
लोगों को इसी टीम में डालना चाहते थे उन्हें यह जानना चाहिए कि ऐसे लोगों की
वैधता का आधार क्या होता और उनके सही-गलत होने की जिम्मेवारी किसकी होती। कहने
का अर्थ यह नहीं है कि जो लोग टीम में नहीं आए उनकी कोई ‘वैधता’
नहीं है या उनमें कोई योग्यता नहीं है। कहने का अर्थ सिर्फ यह है कि लोकतांत्रिक
संस्कृति की नींव रखने का तकाजा यह है कि कुछ लोग उन सक्रिय अनुवादकों की ‘वैधता’
का अपहरण कर अपने लिए भुनाने का प्रयास न करें जिन सक्रिय लोगों ने अपनी ‘वैधता’
एक सघन अभियान और कुछ ‘सुखद संयोगों’ से प्राप्त की है। यह उम्मीद थी कि अन्य लोग
अपनी ‘वैधता’ अपने समानांनर अभियानों,
अपनी टीम बनाने और चुनाव में उतरकर जीतने का प्रयास करने के रूप में करते। यह उनकी
ओर से एक लोकतांत्रिक कदम होता। पर यह नहीं हुआ। अगर आप कोई अभियान चलाने,
टीम बनाने और चुनाव में खड़े होने में सक्षम नहीं हुए तो आपको कोई नैतिक हक नहीं
है कि आप एक सुनिर्मित और सुविचारित टीम के विरूद्ध विषवमन करें। यह अच्छा है कि
श्री प्रेमचंद चुनाव में खड़े हैं। इसलिए प्रेमचंद जी कई ‘छिपे
हुए’ विरोधियों की तुलना में एक स्वस्थ विरोधी हैं और स्वागत
योग्य हैं। इन्हें चाहिए कि ये अपने लिए स्वस्थ प्रचार करें और अन्य विषवमन
करने वालों के हाथ की कठपुतली न बनें।
पूरे कैडर को चाहिए
कि वह एक टीम के रूप में खड़े ‘ऐतिहासिक’ ‘सुखद’ संयोग के साथ अपनी
उर्जा जोड़ दें और इस टीम को भी सबके विश्वास पर खरा उतरने के लिए स्वयं को दिलो
दिमाग से तैयार कर लेना चाहिए।
Bhai Pandey Rakesh each and every line of your article is very inspiring. As for as the point of " chhipe huye virodhi" is concerned , I'm of the view that this blog is going to be a boon for the betterment of our cadre. The more we share our points/issues on it, the more we will be able to take care of each other and our cadre. An old saying has sricken my mind while I was going through your article which goes like " when people start to criticize you, the indication behind this criticizm is this that you are on the right path". This blogspot and ours group i.e. CSOLS both are sort of blessing in disguise for our mutual interactions and points/issues that we want to share within OL cadrians.
ReplyDeleteThanks
DeletePandey ji ham aapse sahmat hain ki yah ek team hai.. gut nahi... yahan log ek dusre ko samajh kar.. accomodate kar ke aaye hain... sath jude hain.. sath chal rahe hain aur chalenge bhi... is teem ko dhero shubhkaamna
ReplyDeleteThanks....Rakesh
Deleteराकेश सर आपने ऊपर जो संतुलित मत रखा है उसके लिए साधुवाद.ये मत वास्तव में great majority के मत हैं.
ReplyDeleteराकेश पाण्डेय जी की लेखन शैली बेहद सराहनीय है, शायद ये पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख लिखते है या खुद पत्र- पत्रिकाएं निकालते हैं। इन्होंने अपनी मानसिकता और विचारों को अच्छी तरह परोसा है। यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आ रही है कि जिस ग्रुप/समुह की बात कर रहे हैं, वो हमेशा ही सबको साथ लेकर चलने की बात करता रहता है और लोकतंत्र की दुहाई देता रहता है। तो फिर इस टीम में ऐसी मानसिकता वाले व्यक्ति कैसे हैं, जो यह समझते हैं कि केवल टीम में ही चुनाव लड़ा जा सकता है, इन्हें मेरे नामांकन दाखिल करने पर खुश होना चाहिए था कि एक और भाई हमारे साथ जुड़ना चाहता है। और सहर्ष स्वीकार करना चाहिए था। परन्तु ऐसा न हुआ और मैंने अपना नामाकंन वापस न लिया तो मुझे विद्रोही का नाम दे दिया गया। और समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मैं किसका विद्रोही हूँ, इनके ग्रुप/टीम का या फिर अपने संवर्ग का। अपने संवर्ग का तो हूँ नहीं और इनकी टीम में था नहीं, तो विद्रोही किसका? मुझे लगता है कि विद्रोही के स्थान पर प्रतिद्वंदी शब्द का इस्तेमाल करते तो ज्यादा अच्छा था। उन्होंने मुझ पर विष वमन का आरोप लगाया है और एक विद्रोही की संज्ञा दी है। मैं बताना चाहूँगा की मैं जितने भी लोगों से मिला उन सबने यही कहा कि उन्हें चुनाव प्रक्रिया की कोई जानकारी नहीं हैं और ना तो उन्हें नामांकन दाखिल करने की तरीको का पता चला और ना ही तथाकथित प्रतिनिधियों का, तो फिर यह कैसा चुनाव है जहाँ सिर्फ 22-25 लोग आपस में बैठकर एक संघ बना लेते हैं। और कोई आगे आए तो उसे विद्रोही करार दे देते हैं। मुझे इस टीम से कभी कोई एतराज नहीं रहा, एतराज है तो सिर्फ उस प्रक्रिया से जो अपनाई गई। यही लोग आगे आएं, परन्तु पारदर्शी और निष्पक्ष प्रक्रिया से। मैं इन्हीं लोगों से पूछता हूँ कि मैंने ऐसा क्या काम किया है,जो मुझे विद्रोही और विष वमन करने वाला कहा जाए। शायद विष वमन का कार्य वे लोग कर रहे हैं जो केवल ब्लॉग पर लिखना जानते हैं और जिन्होंने शायद ही किसी से व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क किया हो अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो उन्हें मालूम होता कि कितने अनुवादक इस चुनाव प्रक्रिया से असंतुष्ट हैं। यह कैसा चुनाव है कि स्वयं मतदाता ही नहीं जानते कि उनके प्रतिनिधि कौन हैं और चुनाव कब और कहा आयोजित किया जाएगा। मैं आग्रह करूँगा की ऐसी मानसिकता से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए। यह भारतीय राजनीति नहीं है कि इस प्रकार की मानसिकता रखी जाए। यह एक सेवा सवंर्ग के उत्थान का मामला है जिसमें आपको अनेक कठिनाईयों से जूझना पड़ेगा और जिसके लिए पूरे अनुवादक वर्ग का सहयोग अपेक्षित होगा आपको एक गुट बनाने के बजाय एक जुट होना पड़ेगा। आप सब से मेरा अनुरोध है कि आप दलगत भावना से ऊपर उठे तथा इस चुनाव प्रक्रिया में सभी अनुवादकों से आह्वान करे कि ये इस चुनाव में सक्रिये रूप से हिस्सा लें। इस संबंध में अगर किसी भी अनुवादक अथवा अनुवादकों के वर्ग विशेष को एतराज हो तो वह इसी ब्लॉग पर अपने विचार प्रस्तुत कर सकता है।यदि उक्त टिप्पणियों से किसी को भी ठेस लगी हो तो मैं उससे क्षमा चाहता हूँ। और अगर इस संबंध में कोई संशय है तो आप कभी भी मेरे मोबाइल सं.- 08527926343 पर सम्पर्क कर सकते हैं।
ReplyDelete(प्रेमचन्द सिंह यादव)
कनिष्ठ अनुवादक
विदेश मंत्रालय
भाई प्रेमचंद जी
Deleteनहीं मालूम मुझे सेवा में कब से हैं आप. लेकिन मैं २००३ से हूं. पहली बार लग रहा है कि सेवा में कुछ है, कुछ अपने जैसे लोग हैं, जो एक मंच पर आकर कुछ रचनात्मक बात कर सकते हैं. मैं एक खुला मंच देख रहा हूं कोई गुट नहीं. आप भी खुले ह्रदय से आइये आपका सदैव स्वागत है. मुझे नहीं लगता कि आपको कोई विद्रोही मानता है या कोई विद्वेष रखता है. चुनाव से बचा जा सकता था.... लेकिन अब चुनाव हो ही रहा तो आपको भी शुभकामनाये... कोई भी आये... लेकिन इस संवर्ग को सकारात्मक सोच वाला नेतृत्व चाहिए. इस भाव से आप आगे आये तो संवर्ग का हित ही होगा.
अरुण चन्द्र रॉय 9811721147
श्री प्रेमचंद अपनी टिप्पणी में हमारी टीम को गुट कहने का लोभ पुन: संवरण नहीं कर पाए हैं। उन्होनें कहा है कि 22-25 लोग एक साथ मिलकर संघ बना लें तो यह लोकतंत्र नहीं; हमारी प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं है; और व्यक्तिगत संपर्क में उन्होनें अनुवादकों को असंतुष्ट; पाया कि अधिकांश अनुवादकों को कुछ पता नहीं है। इस बिंदु पर मैं श्री प्रेमचंद को साग्रह यह कहना चाहूंगा कि उस कैडर में जहां वर्षों से काम कर रहे लोग एक दूसरे को बहुत कम जानते हैं वहां क्या यह अकस्मात है कि 22-25 लोग एकमत हो गए और एक टीम बन गई। 22-25 लोगों की संख्या कोई छोटी संख्या नहीं है और इतने लोग परस्पर मिलने जुलने से ही सामने आए। क्या यह पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं है कि कैडर में जो कभी न हुआ था वह हुआ कि लगभग दो महीने तक व्यक्तिगत संपर्क स्थापित करने का सघन अभियान चला और मुद्दों पर चर्चाएं चलीं। पहल स्वाभाविक रूप से थोड़े से लोगों ने की तो इतने मात्र से किसी टीम को गुट नहीं कहते।
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- पांडेय राकेश श्रीवास्तव